
क्या कभी सूरज को चाँद का इंतज़ार करते देखा है?
क्या कभी सुबहो को रात का इंतज़ार करते देखा है?
क्या कभी पलकों को अश्रुयों का इंतज़ार करते देखा है?
क्या कभी जीत को अपनी मात का इंतज़ार करते देखा है?
ये इंतज़ार भी इक अजीब चीज़ है!
हर अधूरेपन को अपने अंत का इंतज़ार है,
हर हद को अपनी सीमायें तोड़ अनंत का इंतज़ार है,
इस शुन्य में विचरती हर काया को,
उस प्रकाशपुंज महंत का इंतज़ार है!
ये इंतज़ार भी इक अजीब चीज़ है!
ना सूरज, ना सुबह ,ना पलकों ,ना ही जीत
कभी इंतज़ार करेंगी ,क्यूंकि
ये अविरल हैं ,आजाद !
लेकिन इस आत्मा को हमेशा इंतज़ार रहेगा
ना मोक्ष का ,ना ही शुन्य में अंततः संलग्न होने का....
सिर्फ़ अपने प्रेम के निर्विकार रूप में सदा संग होने का!
1 comment:
you have no idea how many fresh thoughts are goin in ma mind ... amazin...
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